दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने यह कहकर एक नई बहस को जन्म दे दिया है कि भारतीय करेंसी पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीर लगाई जाए। केजरीवाल के इस बयान का कोई समर्थन कर रहा है तो कोई विरोध। कोई इस पर हंस रहा है तो कोई इसके राजनीतिक मायने तलाशने में जुटा है। लेकिन चर्चा हर तरफ केजरीवाल के इस सुझाव की ही हो रही है, जिसे गुजरात चुनाव से पहले उनका ‘हिंदुत्व कार्ड’ बताया जा रहा है। राजनीतिक पंडित अब उनके इस दांव के फायदे-नुकसान का विश्लेषण में जुटे हैं।
एक सवाल यह भी उठ रहा है कि अब तक स्कूल, अस्पताल और मुफ्त बिजली जैसे मुद्दों पर फोकस करते रहे केजरीवाल को अचानक ‘हिंदुत्व कार्ड’ खेलने की जरूरत क्यों पड़ी? दरअसल, पिछले दिनों जिस तरह दिल्ली में ‘आप’ के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने हिंदू देवी-देवताओं की पूजा ना करने की शपथ दिलाई उसके बाद भाजपा केजरीवाल को हिंदू विरोधी साबित करने में जुटी थी। इसके बाद गुजरात में पार्टी के प्रमुख गोपाल इटालिया का भी मंदिर को लेकर विवादित बयान सामने आ गया। माना जा रहा है कि पार्टी रणनीतिकारों को गुजरात और हिमाचल चुनाव में नुकसान की आशंका सताने लगी थी।
राजनीतिक जानकारों की मानें तो इसी आशंका के तहत केजरीवाल ने अब तक का सबसे बड़ा ‘हिंदुत्व कार्ड’ खेल दिया। गुजरात की रैलियों में अक्सर टीका चंदन लगाए नजर आने वाले केजरीवाल पिछले कुछ समय से लगातार ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की राह पर बढ़ते दिख रहे थे। माना जा रहा था कि गुजरात में हिंदुत्व के मुद्दों का असर और बीजेपी को इससे मिलते रहे लाभ की काट के तौर पर वह ऐसा कर रहे हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से जन्मी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने के मौजूदा कदम ने सियासी पंडितों को भी चौंका दिया है। दिल्ली में तीन बार और पंजाब में पहली बार बहुमत हासिल कर चुकी पार्टी अब तक ऐसे मुद्दों से बचती रही थी जिस पर ध्रुवीकरण की गुंजाइश हो या किसी एक समुदाय के लोग नाराज हो जाएं। दिल्ली में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में पार्टी की सफलता की एक बड़ी वजह यह भी रही है कि हिंदुओं के अलावा मुसलमानों का भी एकमुश्त वोट मिला है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि पहली बार अरविंद केजरीवाल ने ऐसा स्टैंड लिया है, जो दोधारी तलवार की तरह है। उन्होंने मध्यम मार्ग से हटकर हिंदुत्व की उस पिच पर उतरने का फैसला किया है, जिस पर अभी भाजपा खुलकर बैटिंग कर रही थी।